वर्षो तक वन में घूम घूम , बाधा विघ्नों को चूम चूम ,
श्री कृष्ण हस्तिनापुर आये,
पांडवों का संदेसा लाये ,
दो न्याय अगर तो आधा दो, और, उसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
लेकिन दुर्योधन
दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला।
हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
यह देख जगत का आदि-अन्त, यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है।
Many readers might wonder why I have cataegorized this poem under the tag of Science and Spirituality!!!! This is done very deliberately!!!! I don't want the readers who only read!!!! I want those who think!!!! Hint lies in the name this poem!!!!
Still unable to find the hidden meaning!!!! Well it is asking you to find your real self as your body is composed of the dead and unconscious matter, then how do you know you "are"!!!! Where is the life within these chemical substance our body is consisted of!!!! Know your Real Self!!!!
This poem is from Rashmi Rathi by Dinkar and I'm a big fan of this book.